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कविता

हरी मिर्च - 1

सदानंद शाही


वह जहाँ भी होती है
उसका तीखा हरापन बरबस दिख जाता है
वह खींच ही लेती है - हर थैले का ध्यान
और खरीद ली जाती है।
'अरे भाई! दो चार हरी मिर्च रख देना' कहकर
अक्सर माँग ली जाती है 'घलुआ''

इस तरह
बाजार से लौटने वाले
हर छोटे बड़े थैले में होती ही है
कुछ न कुछ हरी मिर्च।

व्यंजनों से सजी हुई थाली हो
या सूखी रोटी का निवाला
अपने शोख हरेपन के साथ हर जगह
मौजूद रहती है - हरी मिर्च
मानो वही समाजवाद हो।
उसके होने की एक खास अहमियत है
अक्सर थोड़ी खायी जाती है
और ज्यादातर छोड़ दी जाती है
फिर भी होती है तो खाने का मजा है
नहीं होती तो आदमी कहता है
'चलो ऐसे ही खा लेते हैं'
मानो खाना नहीं हुआ, समझौता हो गया।

सचमुच, यह कितना विचित्र है -
महज एक हरी मिर्च का न होना
अच्छे भले खाने को समझौते में बदल देता है।

 


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